रौशनी चाहो तो मेहर-ओ-मह-ओ-अख़्तर सोचो एक क़तरे की तलब हो तो समुंदर सोचो कैसे की जाए रफ़ू अम्न की चादर सोचो सोचने वालो ज़रा सोचो मुकर्रर सोचो जिस का साया है तबाही की अलामत ऐ दोस्त उस परिंदे के कतर पाओगे क्या पर सोचो सीम-ओ-ज़र के लिए ईमान लुटाने वालो साथ क्या ले के गया अपने सिकंदर सोचो कैसे दुनिया को मयस्सर हों उख़ुव्वत के समर नख़्ल उल्फ़त का हो किस तरह तनावर सोचो जिस से आती थी ख़ुलूस और वफ़ा की ख़ुशबू कैसे पामाल हुआ है वो गुल-ए-तर सोचो अपने अख़्लाक़ से मग़्लूब करो दुश्मन को तीर सोचो न तबर सोचो न ख़ंजर सोचो जिस ने हर गाम पे दुनिया को मसर्रत दी है आज क्यूँकर है शिकन उस की जबीं पर सोचो जिस की पेशानी पे मंज़िल का पता लिक्खा है ठोकरें किस लिए खाता है वो पत्थर सोचो अपनी ग़ज़लों का बढ़ाने के लिए हुस्न 'शफ़ीअ'' फ़िक्र पाकीज़ा रखो लफ़्ज़ मुनव्वर सोचो