महल-सराओं के दीवार-ओ-दर से क्या लेना तिरे गदाओं को लाल-ओ-गुहर से क्या लेना मैं अपने ज़र्फ़ को अपनी नज़र से देखूँगा किसी की फ़िक्र किसी की नज़र से क्या लेना जो बाल-ओ-पर के सहारे उड़े परिंदा है मैं आदमी हूँ मुझे बाल-ओ-पर से क्या लेना मैं ख़ुद बशर हूँ बशर से है दोस्ती मेरी मुझे तसव्वुर-ए-फ़ौक़-उल-बशर से क्या लेना जो चल सको तो चलो मेरे साथ मंज़िल तक वगर्ना मुझ को तुम्हारे सफ़र से क्या लेना इक आदमी को भी इंसान जो बना न सके मुआ'फ़ करना मुझे उस हुनर से क्या लेना मुझे ज़मीन के ज़र्रों में नूर भरना है मिरी तलाश को शम्स-ओ-क़मर से क्या लेना उसे तो धूप की चौखट से लौट जाना है नसीम-ए-सुब्ह को फिर दोपहर से क्या लेना है कौन भूका अंधेरा है किस के घर में 'शफ़ीअ'' अमीर-ए-शहर को ऐसी ख़बर से क्या लेना