रवाँ है मुझ में अभी तक वो इंतिक़ाम की शाम तिरे बग़ैर गुज़ारी जो तेरे नाम की शाम ठहर गई है यूँ मुझ में तिरे ख़िराम की शाम कि जैसे गर्द-ए-सफ़र महव हो क़ियाम की शाम सितारा-ज़ाद ने जिस शब जबीं को चूमा था तवील गुज़री थी उस शब के इंतिज़ाम की शाम ये मस्लहत का तक़ाज़ा है या जुनूँ मेरा गुज़ार दी है सफ़र में जो थी क़ियाम की शाम जिसे ज़माना-ए-तौहीद सुब्ह कहता है वो असल में है मिरे आख़िरी इमाम की शाम हक़ीक़ी सज्दों की क़ीमत बता गई हम को वो ज़ेर-ए-तेग़ नमाज़ों के एहतिमाम की शाम वो कैसे रात में हमराह हो गया 'तारिक़' वो एक ख़्वाब मिला था जो मुझ से शाम की शाम