रवय्या काफ़ी कुछ बदला हुआ है आसमानों का मगर नक़्शा वही है अब के भी ख़ाली मकानों का वही इक क़िस्सा अब तक ध्यान में रौशन नहीं होता तसलसुल जिस से वाबस्ता है पिछली दास्तानों का उधर से भी किसी आवाज़ की आमद नहीं मुमकिन इधर भी ज़ाविया बदला हुआ है अपने कानों का बहुत ख़ुश-रंग थी परवाज़ उन ख़ामोश बाँहों की जहाँ भी हौसला दरकार था ऊँची उड़ानों का