शनासा जिस को समझे थे वही ना-आश्ना निकला वो कैसा यार था जो यार बन कर बेवफ़ा निकला भटकता छोड़ आए थे जिसे हम दूर सहरा में हज़ारों क़ाफ़िलों के दरमियाँ वो क़ाफ़िला निकला उलट कर जब भी देखी है किताब-ए-ज़िंदगी हम ने तो हर इक लफ़्ज़ के पीछे कोई इक हादिसा निकला बहुत कुछ नाज़ था हम को मगर अब क्या कहें यारो हुजूम-ए-दोस्ताँ में वो अकेला बेवफ़ा निकला कि अपने दुख-भरे नग़्मे तुम्हें कैसे सुना पाते हमारे हाथ जो भी साज़ आया बे-सदा निकला