रेआया ज़ुल्म पे जब सर उठाने लगती है तो इक़्तिदार की लौ थरथराने लगती है हमेशा होता हूँ कोशिश में भूल जाने की वो याद और भी शिद्दत से आने लगती है हक़ीर करती है यूँ भी कभी कभी दुनिया मिरे ज़मीर की क़ीमत लगाने लगती है ये रौशनाई जो फैली है तेरे अश्कों से ये सिसकियों की सदाएँ सुनाने लगती है ग़ुरूब होता है सूरज तो मेरे सीने से ये कैसी रोने की आवाज़ आने लगती है ये मस्लहत है बुझाने का जब इरादा हो हवा दिए की कमर थपथपाने लगती है मिरे दरीचे मिरे बाम मुस्कुराते हैं वो जब गली से मिरी आने जाने लगती है