पिला रहा है ज़मीं को यहाँ लहू कोई और मगर हैं फूल किसी के है सुर्ख़-रू कोई और तिरी तलब थी सो हम दार तक चले आए अब आरज़ू कोई बाक़ी न जुस्तुजू कोई और ये इत्तिफ़ाक़ नहीं है कि क़त्ल हो जाए तिरी कहानी में मुझ सा ही हू-ब-हू कोई और हमेशा बनती हुई बात को बिगाड़ते हैं कभी कभी तो मैं ख़ुद ही कभू कभू कोई और कमाल-ए-वहदत-ओ-कसरत मैं रोज़ देखता हूँ कि तू ही तो मिरे अंदर है चार-सू कोई और मैं अपने आप से ख़ुद जीतता हूँ हारता हूँ नहीं है मेरे अलावा मिरा अदू कोई और ये शाइरी में है यकता मुख़ालिफ़त में वो ताक़ न और कोई 'यगाना' न लखनऊ कोई और जहान-ए-हासिल-ए-कुन ठीक है मगर 'तारिक़' मुझे बनानी है दुनिया-ए-रंग-ओ-बू कोई और