रेत है इज़हार के पानी के पार और वीरानी है वीरानी के पार मौत की तश्कील से उभरा हुआ कौन है मेरी फ़रावानी के पार आ न पाई मुझ तलक ये काएनात रह गई साँसों की तुग़्यानी के पार फैल कर तुझ में न बस जाऊँ कहीं रंग मुझ को रंग-ए-इम्कानी के पार कौन फूटेगा अदम की कोख से कौन ला-फ़ानी है ला-फ़ानी के पार छोड़ अब मफ़्हूम की उजड़ी क़बा कुछ नहीं मअ'नी की उर्यानी के पार