रेत से आंधियों का झगड़ा था साँस-दर-साँस दम उलझता था वो अकेला ही भीड़ जैसा था वो मिरे चारों ओर चलता था खेल खेला छुपन-छुपाई का छुपने वाला कभी न मिलता था इस बरस ढह गई हैं दीवारें पिछली बारिश में मोर नाचा था सुर्ख़ जोड़ा ख़रीद लाई माँ जाने किन लकड़ियों में जलना था रात आँसू पहन के बैठ गई चाँद चुप-चाप तकता जाता था मैं ने लुक्नत उबूर कर ली थी अन-कही बात को समझ लिया था ज़िंदगी बिक रही थी ठेले पर ठेले वाला कहीं चला गया था काली चादर मुझे अज़ीज़ रही मेरा दुख-सुख उसी में लिपटा था उस को सूरत बदलते देखा था जो मिरे सारे दुख समझता था