छुपे हुए थे जो नक़्द-ए-शुऊ'र के डर से निकल सके न वो जज़्बात मेरे अंदर से कभी भी शहर-ए-तिलिस्मात-ए-दिल की सैर न की हर एक जल्वा लिया मुस्तआ'र बाहर से रहे हम अपनी ही गहराइयों से ना-वाक़िफ़ उतर सकी न कभी काई सतह-ए-दिल पर से सुकूँ की जन्नतें दोज़ख़ नहीं अज़िय्यत का अजीब हाल हुआ आगही के महशर से हमारी बच्चों सी मासूमियत हुई ज़ख़्मी लहूलुहान हुआ दिल ख़िरद के पत्थर से नज़र से देख लो हम रेत के घरोंदों को हमें न छूओ कि हम खोखले हैं अंदर से हमारी कोशिश-ए-बे-सूद उस को क्या पाती हुसूल जिस का था मुमकिन फ़क़त मुक़द्दर से 'रियाज़' शाम ढली अब तो घर को लौट चलो तुलू-ए-सुब्ह से पहले के निकले हो घर से