रिफ़अत कभी किसी की गवारा यहाँ नहीं जिस सर-ज़मीं के हम हैं वहाँ आसमाँ नहीं दो रोज़ एक वज़्अ पे रंग-ए-जहाँ नहीं वो कौन सा चमन है कि जिस को ख़िज़ाँ नहीं इबरत की जा है लाखों ही तिफ़्ल ओ जवाँ नहीं पीरी में भी ख़याल अजल का यहाँ नहीं दुश्मन अगर वो दोस्त हुआ है तो क्या अजब याँ ए'तिमाद-ए-दोस्ती-ए-जिस्म-ओ-जाँ नहीं रफ़्तार नाज़ में ये लचक जाती है कि बस गोया तिरी कमर में सनम उस्तुखाँ नहीं मुनइम के शुक्र में भी हिलाएँ कभी कभी तन्हा बराए-लज़्ज़त-ए-दुनिया ज़बाँ नहीं पज़मुर्दा एक है तो शगुफ़्ता है दूसरा बाग़-ए-जहाँ में फ़स्ल-ए-बहार-ओ-ख़िज़ाँ नहीं जिन के सुरों पर आप मगस-राँ रहे हुमा उन का लहद में आज कोई उस्तुखाँ नहीं धोका न खा ज़ुरूफ़-ए-वज़ू को तू देख कर मस्जिद है मय-फ़रोश की 'नासिख़' दुकाँ नहीं