रिहाई पा न सका सर-फिरी हवाओं से मैं तमाम उम्र उलझता रहा सदाओं से मैं लगेगा वक़्त ज़रा आँख खोलने में मुझे निकल के आया हूँ तारीक-तर गुफाओं से मैं है मेरी पीठ पे इक हाथ हौसला देता सवाल ही नहीं घबराऊँ इबतिलाओं से मैं सुकून वक़्त के सहरा को पार कर के मिला रिहाई पा गया लम्हों की धूप-छाँव से मैं किसी के हाथ सहारा जो बन गए होते तो दो क़दम भी न चल पाता अपने पाओं से मैं हर एक ग़म के समुंदर को जस्त-ए-वाहिद से उबूर करता हूँ ऐ माँ तिरी दुआओं से मैं ये संग-ज़ार मरी गुफ़्तुगू समझते हैं कलाम करता हूँ ऐ 'नूर' बे-नवाओं से मैं