क़सीदा ज़ुल्फ़ों का जिस जगह पर छिड़ा हुआ है वहाँ पे ख़ुशबू का शामियाना लगा हुआ है दरीचा-ए-शब से झाँकता है ये चाँद किस को ये कौन बाम-ए-जमाल पर रूनुमा हुआ है न जाने उस का चराग़ है क्यों बुझा बुझा सा न जाने उस के शिकोह-ए-नख़वत को क्या हुआ है कोई तअ'ल्लुक़ कोई तो रिश्ता ज़रूर होगा ये आसमाँ जो ज़मीं की जानिब झुका हुआ है बता रही है ख़िराम-ए-बाद-ए-सबा की मस्ती गुलाब शाख़-ए-अदा पे कोई खिला हुआ है उसे मुरव्वत के ख़ाल-ओ-ख़द क्या दिखाई देंगे ग़ुबार-ए-नफ़रत से शीशा-ए-दिल अटा हुआ है अगरचे सब खिड़कियाँ हैं बरसों से बंद लेकिन मकान मेरा मकाँ से उस के मिला हुआ है ख़याल जिन का न हो के गुज़रा किसी के दिल से हमारा उन साअ'तों से भी सामना हुआ है बहारें आ आ के 'नूर' होंटों को चूमती हैं मियान-ए-सहरा ये कौन नग़्मा-सरा हुआ है