रिस रहा है मुद्दत से कोई पहला ग़म मुझ में रास्ता बनाता है आँसुओं का नम मुझ में तुझ से यूँ शहंशाहा हो तो क्या शिकायत हो गाह शोर करते हैं तेरे बेश ओ कम मुझ में मैं वो लौह-ए-सादा हूँ जो तुझे अयाँ कर दे रौशनी के ख़त में है इक नफ़स रक़म मुझ में उम्र की उदासी के दूसरे किनारे पर एक अजनबी चेहरा हो रहा है ज़म मुझ में तय हुआ कि मरना तो लाज़मी नतीजा है घूँट घूँट गिरता है ज़िंदगी का सम मुझ में