रिश्ता-ए-हुस्न-ओ-मोहब्बत है निहायत नाज़ुक क़स्र-ए-माशूक़ की होती है इक़ामत नाज़ुक पर्दा-ए-महमिल-ए-लैला से है मजनूँ को त्रास रंग चेहरे का उड़ा हो गई हालत नाज़ुक दस्त-ए-नाज़ुक से गिरा पंजा-ए-मर्जां नागाह दर-ए-मंशूर लिए आई है साअ'त नाज़ुक मरहला जश्न-ए-उरूसी का बहर-तौर रहा बन गई और सबीहा की सबाहत नाज़ुक ज़ेब देती नहीं 'नसरीं' को ये दुनिया-दारी किस तरह ओहदा-बरा होवे ज़ेहानत नाज़ुक