रिश्तों की उलझनों के भँवर से निकल गया वो शख़्स आज अपने ही घर से निकल गया पथरीले हादसों ने लहू कर दिया उसे सौदा सवाद-एज्र- का सर से निकल गया मौसम जवान देख के जागीं बगावतें हर इक परिंदा बूढ़े शजर से निकल गया लफ़्ज़ों के हेर-फेर में उलझा रहा जो शख़्स वो ए'तिबार-ए-अर्ज़-ए-हुनर से निकल गया नौहा हम अपनी ज़ात का लिखते तो किस तरह क़तरा लहू का दीदा-ए-तर से निकल गया चमका दिए उसी ने अँधेरों के आइने जो भी सवाद-ए-शाम-ओ-सहर से निकल गया सब जी रहे हैं फिर भी हक़ीक़त है ये 'नज़ीर' हर शख़्स ज़िंदगी के असर से निकल गया