तिलिस्म-ए-दहर के पर्दे टटोलता कैसे मैं आदमी था तिरे राज़ खोलता कैसे मैं कैसे दर्द छुपाता हँसी के पर्दे में वो आइना था तो झूट उस से बोलता कैसे तमाम जिस्म तो पथरा दिया था मौसम ने मैं अपने आप को फूलों में तोलता कैसे बंधी थी डोर मुक़द्दर के हाथ से मेरे कटी पतंग सा आज़ाद डोलता कैसे 'नज़ीर' कैसे ठहरता मैं साएबानों में थकन का ज़हर इरादों में घोलता कैसे