आरज़ूएँ नज़्र-ए-दौराँ नज़्र-ए-जानाँ हो गईं क्या बहारें थीं जो दो फूलों पे क़ुर्बां हो गईं ग़म की शीरीं तल्ख़ियाँ जीने का सामाँ हो गईं बिजलियाँ ख़ून-ए-रग-ए-जान-ए-गुलिस्ताँ हो गईं रूह-ए-ग़म रूह-ए-तरब रूह-ए-अजल रूह-ए-हयात जब ये बाहम मिल गईं तक़दीर-ए-इंसाँ हो गईं याद है उन की कि इक मौज-ए-जमाल-ओ-रंग-ओ-बू शमएँ कलियों की सी उस दिल में फ़रोज़ाँ हो गईं आँसुओं के ज़ब्त से बेताबी-ए-दिल बढ़ गई इस तरह सिमटीं ये बूँदें एक तूफ़ाँ हो गईं एक वो हैं जिन के वीराने बने हैं बस्तियाँ एक हम हैं बस्तियाँ भी जिन की वीराँ हो गईं उन का जल्वा देखते ही उड़ गए होश-ओ-हवास कश्तियाँ साहिल से लग कर नज़्र-ए-तूफ़ाँ हो गईं हादसों ने कर दिया पैदा ख़याल-ए-हिफ़्ज़-ए-जाँ बिजलियाँ ही वज्ह-ए-तंज़ीम-ए-गुलिस्ताँ हो गईं छट गईं 'रा'ना' ख़ुनुक आहों से ग़म की ज़ुल्मतें बदलियाँ ठंडी हवाओं से परेशाँ हो गईं