क्या रौशनी-ए-हुस्न-ए-सबीह अंजुमन में है फ़ानूस में है शम्अ कि तन पैरहन में है भड़काती है जुनूँ को गुल-ओ-लाला की बहार इक आग सी लगी हुई सारे चमन में है पुर्ज़े समझ के जामा-ए-तन के उड़ा जुनूँ वो जामा-ज़ेब भी तो उसी पैरहन में है सूखे शजर हरे जो हुए फिर तो क्या हुआ नासूर-ए-नौ हमारे भी ज़ख़्म-ए-कुहन में है बज़्म-ए-ख़याल-ए-यार में ग़ैरों का क्या गुज़र ख़ल्वत जो चाहिए वो उसी अंजुमन में है तक़दीर-ए-रेग-ए-शीशा-ए-साअत मिली मुझे कुल्फ़त सफ़र की रात दिन अपने वतन में है बुलबुल की ख़ुश-नवाई का बाइस है इश्क़-ए-गुल दिल में जो दर्द है तो मज़ा भी सुख़न में है रंग-ए-ख़िज़ाँ भी जिस का है रश्क-ए-बहार-ए-अब्र वो किश्त ज़ाफ़राँ की हमारे वतन में है