रोग मैं ने भी कई जाँ को लगाए बरसों जाने वाले भी नहीं लौट के आए बरसों आख़िरश ताब मशक़्क़त की न आँखों में रही मैं ने रोज़ी की तरह ख़्वाब कमाए बरसों धूल जज़्बों की हटाई तो ये एहसास हुआ इस मोहब्बत में शब-ओ-रोज़ गँवाए बरसों तू नहीं था तो मुक़द्दर भी ग़ुनूदा ही रहे ठोकरें मार के भी हम ने जगाए बरसों उस की आँखों से किसी तौर अंधेरा न गया दीप जिस के लिए ख़ूँ से भी जलाए बरसों रूठ कर शहर-ए-ख़मोशाँ को गए आते नहीं हिचकियाँ ले के कोई चाहे मनाए बरसों मैं भी सह पाया नहीं तेरी जुदाई को 'हसन' और इस दिल से भी उठती रही हाए बरसों