सरशार भी करती है ग़ज़ल लेती है जाँ भी ख़ुशबू के बराबर से निकलता है धुआँ भी होती थीं कभी शाम की नींदें भी मयस्सर आँखों में गुज़र जाती है अब पहली अज़ाँ भी पहचान फ़क़त नाम-ओ-नसब से नहीं होती शजरे का पता देती है इंसाँ की ज़बाँ भी किस तरह किया तू ने मोहब्बत का इज़ाला पूरा न हुआ मुझ से तो लम्हों का ज़ियाँ भी कुछ दख़्ल नहीं मेरा मियाँ कार-ए-जुनूँ में अब इश्क़ पे है मुझ को ये ले जाए जहाँ भी इस दुनिया में कर मुझ से नए जज़्बों की ख़्वाहिश मतरूक नहीं चलते 'हसन' सिक्के यहाँ भी