रोज़ अफ़्ज़ूँ है आब-ओ-ताब-ए-सुख़न ता क़यामत खुला है बाब-ए-सुख़न मुझ को सेरी न हो सकी अब तक गो कि पीता रहा हूँ आब-ए-सुख़न इस का चसका अजीब चसका है छूटती ही नहीं शराब-ए-सुख़न 'मीर'-ओ-'सौदा'-ओ-'ग़ालिब'-ओ-'इक़बाल' खींचते हैं सभी तनाब-ए-सुख़न बे-शुमार इस के हैं 'ज़की' दीवान क्या करे कोई एहतिसाब-ए-सुख़न