रोज़ जो मरता है इस को आदमी लिक्खो कभी तीरगी के बाब में भी रौशनी लिक्खो कभी साँस लेना भी मुक़द्दर में नहीं जिस अहद में बैठ कर उस अहद की भी अन-कही लिक्खो कभी दर्द-ए-दिल दर्द-ए-जिगर की दास्ताँ लिक्खी बहुत नान-ए-ख़ुश्क-ओ-आब-ए-कम को ज़िंदगी लिक्खो कभी मस्लहत पर भी कभी होते रहे क़ुर्बां उसूल इन उसूलों को भी उन की दिल-लगी लिक्खो कभी गर समेटे जा रहे हो काम जो करने के थे उस को 'राहत' साअ'तों की आगही लिक्खो कभी