रोज़-ए-रौशन को जो निस्बत है सियह रात के साथ उस ने रिश्ता वही रखा है मिरी ज़ात के साथ कुछ न था बख़्त में नाकाम मोहब्बत के सिवा ज़िंदगी काट दी मैं ने इसी सौग़ात के साथ शब की शब एक चराग़ाँ का समाँ रहता है शाम आ जाती है जब तेरे ख़यालात के साथ अब्र-ए-ग़म दिल से उठे अज़-सर-ए-मिज़्गाँ बरसे चश्म-ए-गिर्यां को अजब रब्त है बरसात के साथ कर्ब यादों का रहा दर्द भुलाने का रहा रंज क्या क्या न सहे गर्दिश-ए-हालात के साथ शैख़ जी आप ने दर-बंदगी सज्दे ही गिने दिल की ततहीर भी लाज़िम थी इबादात के साथ मुतरिबा कौन सुने है तिरी चीख़ों की सदा लब-ए-ल'अलीं पे थिरकते हुए नग़्मात के साथ और तो काम सभी हो गए पूरे 'अख़लाक़' दिल-लगी रह गई इक मर्ग-ए-मुफ़ाजात के साथ