रोज़-ओ-शब का निसाब लगती है ज़िंदगी इक किताब लगती है दोस्तो क्या तुम्हें मिरी सूरत ख़स्ता-हाल-ओ-ख़राब लगती है इश्क़ में उम्र जो गुज़ारी है अब सुनहरा सा ख़्वाब लगती है क्या कहा वो सिन-ए-बुलूग़त में और भी पुर-शबाब लगती है ये तिरी आँख में छुपी मस्ती मुझ को मौज-ए-शराब लगती है गिड़गिड़ा कर दुआ जो माँगी थी क्या तुम्हें मुस्तजाब लगती है जिस में उस की न याद हो 'शाफ़ी' ऐसी साअ'त अज़ाब लगती है