किसी गुमाँ किसी इम्काँ का रुख़ नहीं करती निगाह जल्वा-ए-अर्ज़ां का रुख़ नहीं करती बसी हुई है जो आबादियों में बर्बादी जुनूँ की मौज बयाबाँ का रुख़ नहीं करती सबा को फ़स्ल-ए-बहाराँ से क्या मिला आख़िर वो गुल खिले कि गुलिस्ताँ का रुख़ नहीं करती हिसार-ए-वक़्त में अपना वजूद है महबूस असीरी अब रह-ए-ज़िंदाँ का रुख़ नहीं करती मिरे अज़ीज़ों में रुस्वा मिरी रिफ़ाक़त है जभी ये हल्क़ा-ए-याराँ का रुख़ नहीं करती फ़ज़ा तो नूर-ए-सदाक़त से जगमगाती है ये रौशनी दिल इंसाँ का रुख़ नहीं करती वो कुछ नहीं कोई फ़र्सूदा सी रिवायत है वो फ़िक्र जो नए उनवाँ का रुख़ नहीं करती हवा भी कितनी ज़माना-शनास है ऐ 'लैस' हर एक सेहन-ए-गुलिस्ताँ का रुख़ नहीं करती