रोज़-ओ-शब की शाख़ से बिछड़ा हुआ पत्ता हूँ मैं वक़्त भी अब ढूँढता है जिस को वो लम्हा हूँ मैं दिल के शीशे टूट जाते हैं मिरी आवाज़ से इक शिकस्ता साज़ से उभरा हुआ नग़्मा हूँ मैं हम-नशीनों को कभी आती नहीं है आँच तक कितनी ठंडी आग है जिस में सदा जलता हूँ मैं ज़िंदगी के शोर में सिमटे रहे ज़र्रे मिरे इक ज़रा तन्हा हुआ तो किस तरह बिखरा हूँ मैं रंगतों का सैल था या ख़ुशबुओं की लहर थी अब तलक उस हुस्न में उस झील में डूबा हूँ मैं इन चमकती शाह-राहों पर किसे अपना कहूँ शहर हैं आबाद अपनों से मगर तन्हा हूँ मैं 'शाम' यूँ तो अब ख़लाओं में हैं अपनी मंज़िलें और देखूँ तो उसी धरती से बे-रिश्ता हूँ मैं