उस गुल से कुछ हिजाब हमें दरमियाँ न था जिस दिन कि ये बहार न थी गुलिस्ताँ न था दाम-ओ-क़फ़स से छूट के पहुँचे जो बाग़ तक देखा तो इस ज़मीं में चमन का निशाँ न था ये क़ुमरियाँ जो सर्व की आशिक़ हुईं मगर दुनिया में और कोई सजीला जवाँ न था क्यूँ कर मिली हो गुल से जो आती हो ख़ुश-दिमाग़ ऐ बुलबुलों चमन में मगर बाग़बाँ न था लाचार ले दिल अपना गया गोर में 'यक़ीं' इस जिंस का जहाँ में कोई क़द्र-दाँ न था