रोके से कहीं हादसा-ए-वक़्त रुका है शोलों से बचा शहर तो शबनम से जला है कमरा किसी मानूस सी ख़ुशबू से बसा है जैसे कोई उठ कर अभी बिस्तर से गया है ये बात अलग है कि मैं जीता हूँ अभी तक होने को तो सौ बार मिरा क़त्ल हुआ है फूलों ने चुरा ली हैं मुझे देख के आँखें काँटों ने बड़ी दूर से पहचान लिया है उस सम्त अभी ख़ून के प्यासे हैं हज़ारों इस सम्त बस इक क़तरा-ए-ख़ूँ और बचा है रूदाद-ए-चराग़ाँ तो बहुत ख़ूब है लेकिन क्या जानिए किस किस का लहू इन में जला है इस रंग-ए-तग़ज़्ज़ुल पे 'अली' छाप है मेरी ये ज़ौक़-ए-सुख़न मुझ को विरासत में मिला है