रोज़ मुझ को तबाह करते हैं कुछ तो आसेब मुझ में ऐसे हैं दिल से सब को दुआएँ देते हैं हँस के सब की बलाएँ लेते हैं दूर जाता नहीं हूँ तुझ से यूँ दूर कब जाने वाले लौटे हैं चारागर भी दवा करे कब तक अब तो ज़ख़्मों से ज़ख़्म रिसते हैं मैं ने बचपन कभी नहीं देखा मेरे औज़ार ही खिलौने हैं आप के दुख पे मैं नहीं रोता आप क्यों मेरे दुख पे रोते हैं जाने वालों को हम नहीं रोते जाने वाले पराए होते हैं मैं हूँ महरूम इक ज़माना से ख़ैर तू ने तो अपने देखे हैं ऐसा महसूस हो रहा 'सोहिल' मेरे मरहूम पास बैठे हैं