रूह अफ़्सुर्दा तबीअत मिरी ग़म-कोश हुई ज़िंदगी अपने ही मातम में सियह-पोश हुई फ़िक्र-ए-फ़र्दा हुई या फ़िक्र-ए-ग़म-ए-दोश हुई तेरी याद आई कि हर बात फ़रामोश हुई सोहबत-ए-शैख़ हुई सोहबत-ए-मय-नोश हुई जोश में रूह न फिर आई जो मदहोश हुई ज़िंदगी उन के फ़सानों से भी उक्ता सी गई जो थी सर-ता-ब-क़दम गोश गिराँ-गोश हुई जाने क्या महफ़िल-ए-परवाना में देखा उस ने फिर ज़बाँ खुल न सकी शम्अ जो ख़ामोश हुई