नाज़िल हुआ था शहर में काला अज़ाब एक ग़ारत-गर-ए-नसीब था ख़ाना-ख़राब एक साँसें सिसकती रह गईं दीवार-ओ-दर के बीच बरपा हुआ था छत पे नया इंक़लाब एक मेरा सफ़र था जिस्म के बाहर फ़लक की सम्त उतरा था मेरी क़ब्र पे जब आफ़्ताब एक मेरे लिए बहुत थी ख़िज़ाँ-दीदा रौशनी उस की पसंद लाख मिरा इंतिख़ाब एक अर्ज़-ओ-समा से कोई तअ'ल्लुक़ न राब्ता रास आ गया है मुझ को सफ़र ला-जवाब एक शहर-ए-ग़ज़ल में जौहर-ए-नायाब फ़न 'अलीम' हैं सैंकड़ों जनाब में आली-जनाब एक