रूह तन्हा गई जन्नत को सुबुक-सारी से चार के काँधे उठा जिस्म गिराँबारी से ताक़ ताक़त है ग़म-ए-हिज्र की बीमारी से बैठते उठते हैं आहों की मदद-गारी से हुस्न-ए-रुख़्सार बढ़ा ख़त की नुमूदारी से ज़ीनत-ए-सफ़हा हुई जदवल-ए-ज़ंगारी से तू जो तलवार से नहलाए लहू में मुझ को ग़ुस्ल-ए-सेह्हत हुआ भी इश्क़ की बीमारी से और तो तर्क किया सब ने शब-ए-फ़ुर्क़त में बेकसी बाज़ न आई मिरी ग़म-ख़्वारी से