रुख़-ए-ज़रदार पर हर-दम दमकती शादमानी है मगर मुफ़्लिस के चेहरा से अयाँ ग़म की निशानी है तुम अपनी दास्तान-ए-ग़म ज़रा खुल कर कहो मुझ से मिरे बर्बाद होने की तो इक लम्बी कहानी है अगर कुछ सोचना है आक़िबत की सोच ऐ नादाँ भरोसा क्या है दुनिया का ये दुनिया आनी-जानी है बड़ी मुद्दत से ख़्वाहिश है गुज़ारें साथ कुछ लम्हे तुम्हारे शहर की हर शाम सुनते हैं सुहानी है कहीं भूले से भी उस से न दिल की बात कह देना मिज़ाज-ए-यार में कुछ आज तल्ख़ी है गिरानी है ये कैसे मोड़ पर तू ज़िंदगी ले आई है मुझ को जहाँ दिल में कोई ग़म है न कोई शादमानी है लो अब तो अहल-ए-फ़िक्र-ओ-फ़न भी कहते हैं सर-ए-महफ़िल तेरे अशआ'र में ऐ 'शौक़' शोख़ी है रवानी है