साहिब-ए-सिद्क़ हूँ मैं ख़ौफ़-ए-ख़ुदा रखता हूँ अपने होंटों पे सदा हक़ की सदा रखता हूँ आज-कल जीने का अंदाज़ जुदा रखता हूँ अपने दुश्मन के लिए लब पे दुआ रखता हूँ बंद कमरे में कोई बैठ के कुछ भी सोचे मैं खुले दर की तरह ज़ेहन खुला रखता हूँ मौसम-ए-गुल की किसी चोट का शिकवा कैसा मैं तो पतझड़ में भी हर ज़ख़्म हरा रखता हूँ जाने किस हाल में होगा वो मिरा हरजाई जेब में आज भी मैं जिस का पता रखता हूँ उस के आने की अभी आस नहीं टूटी है हर दरीचे में दिया जलता हुआ रखता हूँ पारसा मुझ को समझते हैं ज़माने वाले और मैं पेश-ए-नज़र अपनी ख़ता रखता हूँ मुझ को कुछ डर नहीं इस दौर के फ़िरऔ'नों का क्यूँकि मूसा की तरह मैं भी असा रखता हूँ तुम मुझे दार पे खींचो या मुझे क़त्ल करो दार-बरदार हूँ मैं अज़्म नया रखता हूँ दोस्ती यूँ तो है इस शहर में सब से लेकिन अपने दुश्मन का भी ऐ 'शौक़' पता रखता हूँ