रुख़्सत-ए-यार का मज़मून ब-मुश्किल बाँधा दिल न बंधता था किसी तौर बड़ा दिल बाँधा हम ने भी बाँध लिया ज़ीस्त का अस्बाब वहीं जब सुना यार-ए-सफ़र-दार ने महमिल बाँधा हम ने उस चेहरे को बाँधा नहीं महताब-मिसाल हम ने महताब को उस रुख़ के मुमासिल बाँधा और क्या बाँधते सामाँ में ब-हंगाम-ए-सफ़र सिर्फ़ दामन में ख़स-ए-कूचा-ए-क़ातिल बाँधा हम जो हर गाम से पैमान-ए-वफ़ा बाँधते थे आख़िरश हम ने भी अज़्म-ए-सर-ए-मंज़िल बाँधा