रुख़-ए-बहार पे अक्स-ए-ख़िज़ाँ भी कितनी देर मुख़ालिफ़त पे तुला आसमाँ भी कितनी देर किसी का नाम किसी का निशाँ भी कितनी देर हो जिस्म ख़ाक तो फिर उस्तुख़्वाँ भी कितनी देर शिकस्त-ओ-रेख़्त की इस मंज़िल-ए-परेशाँ में यक़ीं की उम्र भी कितनी गुमाँ भी कितनी देर बँधा है अहद जो तेग़-ओ-गुलू के बीच तो फिर लरज़ती काँपती नन्ही सी जाँ भी कितनी देर निकल चलो है अभी सहल रास्ता यारो कि मेहरबाँ है तो ये मेहरबाँ भी कितनी देर बरा-ए-शब भी कुशादा है मेरा दरवाज़ा कि सुब्ह आई तो ये मेहमाँ भी कितनी देर सुख़न-वरी न सही मो'जिज़ा सही लेकिन ये तर्ज़-ए-फ़िक्र ये हुस्न-ए-बयाँ भी कितनी देर