वो ख़ौफ़-ए-जाँ था कि लब खोलना गवारा न था सदाएँ सहमी कुछ ऐसी सुख़न का यारा न था तमाम अपने पराए कटे कटे से रहे छुरी जो चमकी तो उस ने किसे पुकारा न था रुख़-ए-कमाँ था उधर तीर का निशाना इधर हमारा दोस्त तो था और मगर हमारा न था रफ़ू-तलब नज़र आता है देखिए जिस को लिबास-ए-जाँ तो कभी इतना पारा पारा न था ख़ुदा करे कि रहे मेहरबाँ सदा तुम पर अज़ीज़ो वक़्त कि इक लम्हा भी हमारा न था उड़ानें भरते परिंदों के पर कतर डालें नज़र के सामने ऐसा कभी नज़ारा न था है दूर हद्द-ए-नज़र से तो क्या क़यामत है हमारे पास था जब तक वो इतना प्यारा न था