रुमूज़-ए-चश्म-ए-करम से जो बा-कमाल हुए निसाब-ए-इश्क़ में वो लोग ला-ज़वाल हुए हरीम-ए-नाज़ तिरी बज़्म से निकाले हुए सफ़ीर-ए-नूर हुए आइना-मिसाल हुए कभी गुज़र तो सही तू भी इस ख़राबे से कभी तो देख कि हम कितने पाएमाल हुए हवा-ए-कू-ए-तमन्ना पुकारती है जिन्हें वो लोग ख़्वाब हुए गर्द-ए-माह-ओ-साल हुए मुसाफ़िरों से कहो हद्द-ए-शहर ख़त्म हुई ये दश्त-ए-हिज्र है चेहरे यहाँ ख़याल हुए ये कैसी सुब्ह-ए-तमन्ना है घर के आँगन में असीर-ए-ज़ुल्मत-ए-शब मेरे नौनिहाल हुए कोई तो देखे ये महबूबियत की मंज़िल भी जमाल-ए-कौन-ओ-मकाँ नज़्र-ए-ख़द्द-ओ-ख़ाल हुए