रुस्वा भी हुए जाम पटकना भी न आया रिंदों को सलीक़े से बहकना भी न आया वो लोग मिरी तर्ज़-ए-सफ़र जाँच रहे हैं मंज़िल की तरफ़ जिन को हुमकना भी न आया था जिन में सलीक़ा वो भरी बज़्म में रोए हम को तो कहीं छुप के सिसकना भी न आया हम ऐसे बला-नोश कि छलकाते ही गुज़री तुम ऐसे तुनुक-ज़र्फ़ छलकना भी न आया हम जाग रहे थे सो अभी जाग रहे हैं ऐ ज़ुल्मत-ए-शब तुझ को थपकना भी न आया ललचाई कोई ज़ुल्फ़ न मचला कोई दामन इस बाग़ के फूलों को महकना भी न आया कम-बख़्त सू-ए-दैर-ओ-हरम भाग रही हैं गुलशन की हवाओं को सनकना भी न आया लहराती ज़रा प्यास ज़रा कान ही बजते इन ख़ाली कटोरों को खनकना भी न आया