पाया नहीं वो जो खो रहा हूँ तक़दीर को अपनी रो रहा हूँ इस सोच में ज़िंदगी बिता दी जागा हुआ हूँ कि सो रहा हूँ फिर किस से उठेगा बोझ मेरा इस फ़िक्र में ख़ुद को ढो रहा हूँ काँटों को पिला के ख़ून अपना राहों में गुलाब बो रहा हूँ झरना हो नदी हो या समुंदर कूज़े में सब समो रहा हूँ हर रंग गँवा चुका है पहचान पानी में क़लम डुबो रहा हूँ पत्थर के लिबास को मैं 'शाहिद' शीशे की सिलों पे धो रहा हूँ