रूठ जाए वो मह-जबीं न कहीं लब पे आ जाए फिर नहीं न कहीं हम ने दुनिया को छान मारा है तुझ सा देखा मगर हसीं न कहीं तेरी जानिब से मुझ को खटका है ग़ैर हो जाए दिल-नशीं न कहीं शिकवा दुश्मन का करते डरता हूँ हो वही मार-ए-आस्तीं न कहीं दिल को मेरे चुरा के ले जाए वो बुत-ए-सेहर-आफ़रीं न कहीं ये न कहिए किसी से उल्फ़त से खाएँ धोका यहाँ हमीं न कहीं मुद्दआ' दिल का क्या कहें उस से हम से बिगड़े वो नाज़नीं न कहीं दिल किसी बुत के दिल से मिलता है एक हो जाएँ कुफ़्र-ओ-दीं न कहीं शे'र कहना समझ के ऐ शंकर कोई मिल जाए नुक्ता-चीं न कहीं