रूठे हैं हम से दोस्त हमारे कहाँ कहाँ टूटे हैं ज़िंदगी के सहारे कहाँ कहाँ दुनिया की बाज़गश्त में अपनी ही है सदा ऐसे में कोई तुझ को पुकारे कहाँ कहाँ काबे में था सकूँ न कलीसा में चैन था तुझ से बिछड़ के दिन ये गुज़ारे कहाँ कहाँ तू था रग-ए-गुलू से ज़ियादा क़रीब-तर ढूँढ आए तुझ को दीद के मारे कहाँ कहाँ तारे कहीं हैं फूल कहीं हैं गुहर कहीं बिखरे हुए हैं अश्क हमारे कहाँ कहाँ शम्अ' भी मुज़्तरिब है पतंगा भी मुज़्तरिब पहुँचे हैं सोज़-ए-ग़म के शरारे कहाँ कहाँ फ़ुर्सत मिले कभी तो शब-ए-ग़म से पोंछना टूटे हैं चश्म-ए-'शौक़' से तारे कहाँ कहाँ