दश्त हम तुझ से तअ'ल्लुक़ को निभाते कैसे हम भला उन की गली छोड़ के जाते कैसे उन की आँखों में कोई और बसा था शायद हम से वो नज़रें मिलाते तो मिलाते कैसे उन के चेहरे पे किसी और का हक़ था शायद हम तो क़दमों से तवज्जोह को हटाते कैसे मेरी ही जान का वो मान से हक़ माँगता था पगला यार था वो जान बचाते कैसे उस ने पूछा ही न था कौन हैं क्यूँ आए हैं हम भी ख़ुद्दार थे फिर हाल सुनाते कैसे 'बुशरा' हम अपने किए पर भी न पछता पाए दिल को बे-फ़ैज़ ज़माने में लगाते कैसे