सब दीदा-ए-हैरत से तकते हैं दहन उस का दरिया की रवानी है या तर्ज़-ए-सुख़न उस का गुल-बूटे हमारे हैं और सेहन-ए-चमन उस का ज़िंदा है अभी हम से दुनिया में चलन उस का सूरज भी तपिश उस के रुख़्सार से पाता है और करता है दिल रौशन कुंदन सा बदन उस का गुफ़्तार में पाई है शबनम सी नमी उस ने नग़्मों की तरह गूँजे है शीरीं सुख़न उस का परदेस में रह कर भी मैं ज़ेहन में रखता हूँ इक उस से मेरा वा'दा और मुझ से वचन उस का ख़्वाबीदा उमंगें भी अंगड़ाइयाँ लेती हैं दमके जो तसव्वुर में चंदन सा बदन उस का महफ़िल में सुनाता है जब 'जोश' ग़ज़ल अपनी सब देखते रहते हैं एजाज़-ए-सुख़न उस का