सब हैं मसरूफ़ ख़ून पीने में कौन झाँके किसी के सीने में लहरें आदाब कर के उठती हैं कौन बैठा है इस सफ़ीने में 'मीर' के शे'र तक नहीं टिकते वो ख़ला है हमारे सीने में आँख में अब नज़र नहीं बाक़ी दिल नहीं है किसी के सीने में आँसुओं से लहू नदारद और ख़ून शामिल नहीं पसीने में यही मौसम है आओ मर जाएँ फूल खिलते हैं इस महीने में मौत आवाज़ देने लगती है जी लगाता हूँ जब भी जीने में