सब को ख़ुद से बचा रहा हूँ मैं अपना नक़्शा मिटा रहा हूँ मैं दिल का तेरे हवा में जान-ए-जाँ पुर्ज़ा पुर्ज़ा उड़ा रहा हूँ मैं या सजाता हूँ तेरी डोली या अपनी मय्यत सजा रहा हूँ मैं ताकि फिर शे'र का धमाका हो रोज़ बारूद खा रहा हूँ मैं दिल के मैं ने बढ़ाए दाम बहुत जान सस्ती बना रहा हूँ मैं ढोंग है ये मिरी नई उल्फ़त अब भी वा'दा निभा रहा हूँ मैं बात मनहूस इक सुनाने को पहले अच्छी सुना रहा हूँ मैं ईद दीवाली हो कि बैसाखी जश्न-ए-उर्दू मना रहा हूँ मैं तंग आया हटा के काँटों को अब तो रस्ता हटा रहा हूँ मैं अब तो देते नहीं ग़ुलामी भी दौर था इक ख़ुदा रहा हूँ मैं आग लगने की चाह से ही तो शम्अ' घर में जला रहा हूँ मैं अब तिरा ज़हर फैले बाहर भी अब तो 'मग़्लूब' जा रहा हूँ मैं