सब को ख़्वाबों के न ऐवान में रख मैं हक़ीक़त हूँ मुझे ध्यान में रख राहज़न फिरते हैं बस्ती बस्ती घर का सरमाया बयाबान में रख शब-परस्तों की है दुनिया प्यारे अपने सूरज को गरेबान में रख क्या करेगा तू ये मुट्ठी-भर धूप आग सीने के ख़ियाबान में रख बे-सदा क़र्या-ए-एहसास हुआ उँगलियाँ अब न यहाँ कान में रख किसी दस्तक का उजाला न सही शम्अ यादों की तो दालान में रख फ़रहत-अंगेज़ है बाहर की हवा खिड़कियाँ ज़ह्न के ऐवान में रख है दर-ओ-बस्त-ए-मआ'नी इन से मलका लफ़्ज़ों की पहचान में रख शहर-ता-शहर है ज़ख़्मों का पड़ाव अपना ख़ेमा अभी मैदान में रख ऐ 'फ़ज़ा' लय का ये शोला न बुझे इतना आहंग तो औज़ान में रख