सब को उलझाए हुए है ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ इन दिनों कौन सुनता है मिरा हाल-ए-परेशाँ इन दिनों हो रहा हूँ महव-ए-दीद-ए-रू-ए-जानाँ इन दिनों क्यों न हूँ फिर सूरत-ए-आईना हैराँ इन दिनों मुसहफ़-ए-रुख़ नूर-अफ़्शानी से बैज़ावी हुआ हो गए क्या मुत्तहिद तफ़्सीर-ओ-क़ुरआँ इन दिनों साहत-ए-दिल आइना है और आँखें दूरबीं क्यों नज़र आता नहीं फिर रू-ए-जानाँ इन दिनों रात दिन गोशे में कब तक इश्क़-ए-लैला-ए-जमाल बन के मजनूँ कीजिए सैर-ए-बयाबाँ इन दिनों अब सिकंदरपूर रश्क-ए-ख़ित्ता-ए-शीराज़ है लाए हैं तशरीफ़ उस्ताद-ए-सुख़न-दाँ इन दिनों लखनऊ की शायरी मंसूख़ है इस दौर में रश्क-ए-'नासिख़' है हर इक तिफ़्ल-ए-दबिस्ताँ इन दिनों शाइ'रान-ए-दहर को अब है परेशानी नसीब करते हैं उस्ताद-ए-अकमल जम्अ दीवाँ इन दिनों इक जगह रहने नहीं देती ज़माने की हवा हो रहा हूँ मिस्ल-ए-औराक़-ए-परेशाँ इन दिनों रात दिन 'आजिज़' नवाज़ी उन को अब मंज़ूर है क्यों न हो फिर बस्ता-ए-ज़ंजीर-ए-एहसाँ इन दिनों