सब समझते हैं कि हम किस कारवाँ के लोग हैं फिर भी पूछा जा रहा है हम कहाँ के लोग हैं मिल्लत-ए-बैज़ा ने ये सीखा है सद-हा साल में ये यहाँ के लोग हैं और वो वहाँ के लोग हैं ख़ाली पैमाने लिए बैठे हैं रिंदान-ए-किराम मय-कदा उन का है जो पीर-ए-मुग़ाँ के लोग हैं इन से मत पूछो कि मंज़िल तुम से क्यूँ छीनी गई इन को मत छेड़ो ये मीर-ए-कारवाँ के लोग हैं गुल-फ़रोशी से उन्हें हम रोकने वाले हैं कौन हम चमन के लोग हैं वो बाग़बाँ के लोग हैं अपने दुश्मन से हमें 'इक़बाल' कोई डर नहीं उन से बे-शक ख़ौफ़ है जो दरमियाँ के लोग हैं